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Tuesday, 22 May 2012

दीवानगी ने मेरी , ये ऐसा यू गुनाह किया




दीवानगी ने मेरी , ये ऐसा यू गुनाह किया ,

तुझे चाहकर मैं खुद को ही भूल गयी

मेरे अक्स का साया इस तरह खो गया ,

ढूँढ़ते – ढूँढ़ते जिसे , कहीं तू मिल गया





दीवानगी ने मेरी , ये ऐसा यू गुनाह किया

जैसे ही पलकें बिछाईं, तेरे स्वागत के लिए,

अश्कों की लहर दौड पड़ी, तेरे दीदार के लिए

लव्जों की ये क्या मजबूरी बन गयी ,

शब्दों की बौछार क्यूँ धीमी पड़ गयी


दीवानगी ने मेरी , ये ऐसा यू गुनाह किया

पनाहों की हरकतें , कहीं कुछ कह रही हैं ,

अनकही सी सरबटे, कहीं सिकुड रहीं हैं
न मेरी सुन रहीं हैं , न तेरी सुन रहीं हैं

इसी कशमकश में , इसी दीवानगी में
तुझे पा लिया है,
ऐसा लगा जैसे , जहाँ मिल गया है




 दीवानगी ने मेरी , ये ऐसा यू गुनाह किया

नींदों में मैं जागने लगी हूँ,

खुली आँखों से सोने लगी हूँ
वक़्त का अहसास खो गया है 

,बेवक्त होना आदत बन गया है

ये गुनाह करके मैंने ,बेडियाँ पहनी  हुई हैं

फिर भी इनमें जकड़े रहना,क्यूँ अच्छा लग रहा है ???????????