दस्तूर -ऐ -मोहब्बत की ये क्या दास्ताँ है
हसाती भी है , फसाती भी है
तनहाइयों में हमको रुलाती भी है
जिक्र जब-२ होता है हुज़ूर
परवानो के जलने के किस्से मशहूर
हराती भी है , जिताती भी है
परवाज़ से हमको मिलाती भी है
पाने की कुछ अधूरी सी चाह
खोने की कुछ अनकही सी राह
जगाती भी है ,सुलाती भी है
दुश्मन हमें ज़माने का बनाती भी है
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